भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c) २०००-२०२२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.html , http://www.geocities.com/ggajendra   आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha   258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै। इंटरनेटपर मैथिलीक पहिल उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि, जे http://www.videha.co.in/   पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

 

(c)२०००-२०२२. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। सह-सम्पादक: डॉ उमेश मंडल। सहायक सम्पादक: राम वि‍लास साहु, नन्द विलास राय, सन्दीप कुमार साफी आ मुन्नाजी (मनोज कुमार कर्ण)। सम्पादक- नाटक-रंगमंच-चलचित्र- बेचन ठाकुर। सम्पादक- सूचना-सम्पर्क-समाद- पूनम मंडल। सम्पादक -स्त्री कोना- इरा मल्लिक।

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स्थायी स्तम्भ जेना मिथिला-रत्न, मिथिलाक खोज, विदेह पेटार आ सूचना-संपर्क-अन्वेषण सभ अंकमे समान अछि, ताहि हेतु ई सभ स्तम्भ सभ अंकमे नइ देल जाइत अछि, ई सभ स्तम्भ देखबा लेल क्लिक करू नीचाँ देल विदेहक 346म आ 347 म अंक, ऐ दुनू अंकमे सम्मिलित रूपेँ ई सभ स्तम्भ देल गेल अछि।

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Thursday, July 9, 2009

आन भाषासँ मैथिली अनुवाद- गजेन्द्र ठाकुर

मूल गुजराती पद्य आ तकर अंग्रेजी अनुवाद- हेमांग आश्विनकुमार देसाइ

मैथिली अनुवाद-गजेन्द्र ठाकुर



समीकरण



दू टा अर्धवृत्त जन्मैत समानान्तर,

समानान्तर रेलगाड़ीक पटरी।

हाथ भरि नमगर लिबल घास,

झुकैत भीतर,

बिना डोरीक धनुष सन।

सुनबैत खिस्सा भरिगर हबाक,

रातिभरि जन्मैत अस्पष्ट पीठ वेताल सन,

जे उड़ि जाइत अछि बोर भेने।



आ एतबे

आकि कनेक बेशी

झुकल बुढ़िया

जे अहाँकेँ मोन पाड़त हाँसू।



झुकल निश्चल प्रथम श्रेणीक कम्पार्टमेन्टमे,

कातमे ठाढ़ कएल गेल ट्रेन

अहाँक अपन आँखिसँ कएल प्रतीक्षा बिन कात भेल।

एकटा छोटो आहटि

एकटा त्वरित चमक कमसँ कम

आब, हँ आब

ई हमर अधिकार अछि, सत्ते

हैए जाइत अछि।



दूटा उर्ध्वाधर पटरी टेढ़ कएल बीचमे

दू टा तोरण जमल मृत्यु

एकटा तीक्ष्ण गुमारबला दुपहरिया

आ अहाँ

बनबैत छी एकटा अद्भुत समीकरण।

आश्चर्यिय छी अहाँ कष्ट उठबैत छी सोझ बैसबा लेल

आ जे हाँसू गीरि गेलहुँ कताक समय पहिने

तोऐत अहाँकेँ खण्डमे


शेख मोहम्मद शरीफ प्रसिद्ध वेमपल्ली शरीफक जन्म आन्ध्र प्रदेशक कडापा जिलामे भेल छल।
जयलक्ष्मी पोपुरी, निजाम कॉलेज, ओस्मानिया विश्वविद्यालयमे अध्यापन।
तेलुगुसँ अंग्रेजी अनुवाद
गजेन्द्र ठाकुर (अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद)।
जुम्मा
हमर अम्मीक निर्दोष मुखमंदल अबैत अछि हमर आँखिक सोझाँ, चाहे आँखि बन्द रहए वा खुजल रहए। ओहि मुखक डर हमर विचलित करैत अछि। एखनो हुनकर डराएल कहल बोल हमर कानमे बजैत रहए-ए। ई दिन रहए जुम्माक जाहि दिन मक्का मस्जिदक बीचमे बम विस्फोट भेल रहए। सभ दिस कोलाहल, टी.वी. चैनल सभपर घबराहटिक संग हल्ला, पाथरक बरखा, आदंक आऽ खुनाहनि।
हम काजमे व्यस्त छलहुँ जखन फोन बाजल। फोन उठेलहुँ तँ दोसर दिस अम्मी छलीह..हुनकर फोन ओहि समय नीक आ सहज लागल।
एहिसँ पहिने कि हम “अम्मी..” कहितहुँ ओ चिन्तित स्वरेँ “हमर बाउ...!” कहलन्हि।
“की अहाँकेँ ई बुझल छल...?” हम पुछलियन्हि।
“हँ एखन तुरत्ते हमरा ई पता चलल..अहाँ सतर्क रहब! ...लागै-ए अहाँ आइ मस्जिद नहि गेल रही हमर बाउ।” हम हुनका डरसँ सर्द अवाजमे बजैत सुनलहुँ।
जिनगीमे पहिल बेर हमर मस्जिद नहि जएबासँ ओ प्रसन्न भेल छलीह। ई विचार हमरा दुख पहुँचेलक। की हमर अम्मी ई गप बाजि रहल छलीह? ई ओ छथि जे हमरासँ ई पूछि रहल छथि? ई हमर अम्मी छथि जे एहि तरहेँ डरलि छथि? हमर मस्तिष्क विचरक विस्फोटसँ भरि गेल आ स्मृतिक बाढ़िमे बहए लागल।
हमर अम्मीकेँ जुम्माक नवाज आस्थाक दृष्टिसँ नीक लगैत छलन्हि। ओ कोनो चीजक अवहेलना कऽ सकैत रहथि मुदा जुम्माक दिन नमाजक नहि, से ओ हमरा सभकेँ ओहि दिन घरमे नहि रहए दैत रहथि। अब्बा सेहो हुनकर दामससँ नहि बचि पाबथि जे ओ घरपर रहबाक प्रयास करथि। हुनकर सन डीलडौल बलाकेँ सेहो हाथमे टोपी लए मस्जिद चुपचाप जाए पड़न्हि।
हमरा सभक घरमे काजसँ दूर भागए बला, आलसी बच्चा, शिकारी हम आ हमर अब्बा हरदम मस्जिद नहि जएबा लेल बहन्नाक ताकिमे रहैत छलहुँ। हमर अब्बा भोरेसँ छाती तनैत कहैत रहैत छलाह जे आइ जुम्मा अछि से कोनो हालतिमे मस्जिद जएबाके अछि। मुदा जखने समय लग अबैत रहए हुनकर बहन्ना शुरू- “अरे! अखने कादोमे हम खसि पड़लहुँ...” हमर अम्मी लग कोनो रस्ता नहि बचन्हि। जे से, तखन ओ हमरा सेहो मस्जिद नहि पठा सकैत छलीह...हमरा नहबैत, हमर कपड़ा धोबैत, ओ कोना कऽ सकितथि? तैयो ओ हाथमे छड़ी लेने आँगन आबथि, हमरापर गुम्हरैत, हमर पुष्ट पिटान करैत आ हमरा अँगनामे कपड़ा जकाँ टँगैत। से हम ई चोट खएबासँ नीक बुझैत रही नमाजे पढ़ब। हमर आलसपना मस्जिद पहुँचिते अकाशमे उड़ि जाइत रहए।
एक बेर ओतए पहुँचिते हम दोसर बच्चा सभ संग मिझरा जाइत रही आ सभटा नीक वरदानक लेल प्रार्थना करैत रही- जेना हमर अब्बा लग खूब पाइ होन्हि, हमर अम्मीक स्वास्थ्य नीक भऽ जान्हि, हमर पढ़ाईमे मोन लागए आ की की।
हमर अम्मा बुझाबथि- “हमरा सभकेँ मस्जिद मात्र वरदान प्राप्त करबाक लेल नहि जएबाक चाही, हमर बाउ..हमरा सभकेँ नमाज पढ़बाक चाही...अल्लामे आस्था हेबाक चाही। वैह छथि जे हमर सभ कल्याण देखैत छथि”।
जखन दोसर हुनका हमर उपराग देन्हि जे हम नमाज काल आस्ते-आस्ते गप करैत रहै छी तँ ओ हमरा आस्तेसँ दबाड़ि बाजथि- “हमर बाउ, प्रार्थनाक काल बजबासँ अपनाकेँ रोकू...कमसँ कम मस्तिष्कमे दोसर तरहक विचारकेँ अएबासँ रोकू। बगलमे बम किएक ने फाटय तैयो सर्वदा अपन मस्तिष्ककेँ अल्लापर केन्द्रित राखू...”। हुनका ओहि दिन एहि गपक अन्देशा नहि रहन्हि जे एक दिन ठीकेमे मस्जिदमे बम फाटत। से आश्चर्य नहि जे ओ एतेक आत्मविश्वाससँ बाजि रहल छलीह। आब जखन ठीकेमे बम विस्फोट भेल अछि, हुनका ई अनुभव भऽ रहल छन्हि जे कतेक भावह ई भऽ सकैत अछि।
हम हुनकर वेदनाकेँ नहि देखि पाबि रहल छी। ओ डरायलि छलीह। ओ नमाजसँ डरायल छलीह। ओ अल्लासँ सेहो डरायल छलीह।
“अम्मी...”। हम उद्यत भऽ कहलहुँ।
“हमर बेटा...”। ओ दोसर कातसँ बजलीह। “अहाँ आइ मस्जिद नहि गेलहुँ, नहि ने, हमर बाउ”? ओ फेरसँ कहलीह।
हमर हृदय डूमि रहल रहए। शब्द हमर संग छोड़ि रहल रहए। हमर कंठ सूखि रहल रहए। हम घुटनक अनुभव कएलहुँ। विचार ज्वारि जकाँ हमरा भीतर उठि रहल छल। हमरा लागल जे क्यो हमरा ठेलि कए सोखिं कए भूतमे लऽ जाऽ रहल अछि।
जुम्माक दिन मस्जिदसँ घुरलाक बाद हम सभटा घटनाक आवृत्ति अम्मी लग करैत छलहुँ। हम नमाजक एकटा छोट संस्करण हुनका लगमे करैत छलहुँ। हमरा प्रार्थना पढ़ैत देखि ओ हमरा आलिंगन मे लऽ चुम्मा लैत छलीह, “अल्ला हरदम अहाँक रक्षा करताह, हमर बाउ...”। ओ हमरा आशीर्वाद दैत रहथि। तखन हम निर्णय कएलहुँ जे जहुँ हमरा कोनो ज्ञानप्राण अछि तँ हमरा कोनो नमाज नहि छोड़बाक चाही। सभ जुम्माकेँ ओ नमाजक महत्वपर बाजथि आ मस्जिद जएबापर जोड़ देथि। आन चीजक अतिरिक्त ओ एहि गपक विषयमे बाजथि जे कुरान अही दिन बनाओल गेल रहए, कि मनुक्ख अपन कर्मक लेल अही दिन उत्तर दैत अछि आ जे विश्व जीवन रहित जे कहियो होएत तँ सेहो अही दिन होएत।
हमर माथ, छोट रहितो, ई गप बुझि गेल जे जुम्मा किएक मुसलमान लेल पवित्र अछि।
सभ बच्चा जुम्मा दिन साँझ धरि स्कूलमे रहैत छलाह, मात्र हम दुपहरियाक बादे स्कूल छोड़ि दैत छलहुँ, मस्जिद जएबाक बहन्ने झोरा झुलबैत घर घुरैत छलहुँ। हमर अम्मी शिक्षकसँ परामर्श कए केने छलीह।
दोसर छात्र सभ हमरा एतेक शीघ्र घर जाइत देखि ईर्ष्या करैत छलाह। ओ हमरा भाग्यशाली बुझैत छलाह आ अपनो मुस्लिम होएबाक मनोरथ करैत छलाह।
हुनकर ईर्ष्यालु मुख देखि हम भीतरे-भीतर हँसैत रही। हम खुशी-खुशी घर घुरैत रही जेना हाथीक सवारी कएने होइ।
हमर अम्मी ओहि महत्वपूर्ण उपस्थितिक लेल हमरा तैयार करैत रहथि- गरम पानिसँ नहबैत रहथि, हमर आँखिमे काजर लगबैत रहथि, हमर केशक लटकेँ टोपीक नीचाँ समेटि कए राखथि। हम सभ दिन तँ हाफ पैंटमे रहैत छलहुँ मुदा ओहि दिन उजरा कुरता पैजामामे चमकैत छलहुँ।
दोसर स्त्रीगण हमरा देखि अपन हाथ हमर मुखक चारू दिस जोरसँ घुमाबथि आ कोनो दुष्टात्माकेँ भगाबथि आ कहथि, “जखन जुम्मा अबैत अछि अहाँ जुम्माक सभटा चक लए अबिते ने छी”!!
अहाँ जुम्माक साँझमे ई खुशी सभ घरमे देखि सकैत छी, दरगा केर फ्रेम कएल चित्रक सोझाँमे जड़ैत लैम्प, अगरबतीक सुगन्धी वायुमे हेलैत; अपन माथ झँपने स्त्रीगण घरक भीतर-बाहर होइत; आ नारिकेलक दाम दोकानक खिड़कीपर बढ़ैत। दरगा केर फ्रेम कएल चित्र पर नारिकेल चढ़ेबाक विधक वर्णन एतए अहाँ नहि छोड़ि सकैत छियैक।
किएक तँ हमर अब्बाकेँ अर्पण विधक ज्ञान नहि छलन्हि से ओ हजरतकेँ छओटका रस्तासँ घर अनैत रहथि। हमर अम्मी ई सिखबाक लेल हुनकर पछोर धेने अबैत रहथि।
“अहाँकेँ ई अन्तरो नहि बुझल अछि कलमा..आकि गुसुल...हमरा अहाँसँ निकाह करेबाक लेल अपन अम्मी-अब्बाकेँ दोषी बनाबए पड़त...कियो अहाँसँ नीक हुनका सभकेँ नहि भेटलन्हि, अहाँसँ हमर बियाह करेलथि। आब बच्चो सभ अहींक रस्ता पकड़लथि हँ...” ओ हुनकासँ एहि तरहेँ विवादपर उतरि जाथि।
“अहाँ ..घरक...ई उत्पीड़न हमरा लेल असह्य भऽ गेल अछि..”। पजरैत, ओ मस्जिद जाइत रहथि लाल-पीयर होइत हजरतकेँ घर अनबा लए।
हजरत नारिकेलक अर्पण विध पूरा करबाक बाद अपन मुँह आ पएर धोबि आ अपन दाढ़ीमे ककबा फेरि बाहरमे खाटपर बैसैत रहथि। एहि बीच हमर अम्मी फोड़ल नारिकेलक गुद्दा निकालि ओकर कैक भाग कए ओहिमे चिन्नी मिलाबथि। ओ तखन एहि मिश्रणकेँ बाहर हातामे जमा भेल सभ गोटेमे बाँटथि। ओ अन्तमे हमरा लेल राखल दू-तीन टा टुकड़ी लेने हमरा लग आबथि।
हम शिकाइत करियन्हि, “यैह हमरा लेल बचल अछि”? “हमरा सभकेँ अल्लाकेँ अर्पित कएल वस्तु नहि खएबाक चाही, हमर बेटा..हम दोसरामे एकरा बाँटी तैयो जहुँ हमरा सभ लेल किछु नहि बचए”। ओ हमरा शान्त करथि।
हुनकर मीठ बोल हमरा मोनसँ नारिकेलक पर्याप्त हिस्सा नहि भेटबाक निराशाकेँ खतम कए दैत छल। बादमे हमर पिता आ हजरत साँझमे अबेर धरि बैसि गप करैत रहथि। अपन वस्त्र बदलि सामान्य वस्त्रमे हम, अपना संगी सभक संग पड़ोसक एकटा निर्माण स्थलपर बालूक ढेरपर खेलाय लेल चलि जाइत रही।
ई सभ सोचि हमर आँखिमे नोरक इनार बनि गेल...
“हमर पुत्र, अहाँ किएक नहि बाजि रहल छी? की भेल? हम डरक अनुभव कऽ रहल छी...बाजू...” हमर अम्मी पुछैत रहलीह। ओना तँ हैदराबाद एनाइ तीन बरख भऽ गेल मुदा एको दिन हम नमाज नहि पढ़लहुँ। असमयक पारीमे काज करबा अनन्तर हम ईहो बिसरि गेलहुँ जे नमाज पढ़नाइ की छियैक। “अम्मी..” हम उत्तर लेल शब्द तकैत बजलहुँ। “अम्मी, हम कहिया हैदराबादमे नमाज पढ़बाक लेल मस्जिद जाइत छी जे अहाँ एतेक चिन्तित भऽ रहल छी”? हम पुछलहुँ।
हम मोन पाड़लहुँ ओहि दिनकेँ जखन ओ हैदराबाद आएल रहथि कारण हम कहन्र् रहियन्हि जे हम हुनका हैदराबाद नगर देखेबन्हि। मुदा हैदराबाद आबि अपन विरोध देखबैत ओ बजलथि, “हम कतहु जाए नहि चाहैत छी...हमरापर किएक पाइ खर्च कऽ रहल छी”? हम हुनकर मोनक गप बुझैत रही। ओ हमरापर बोझ नहि बनए चाहथि, मुदा हम हुनकर विरोधपर ध्यान नहि देलहुँ। हमर जोर देलापर ओ एक बेर अएलीह। हम हुनकर हाथ पकड़ि रस्ता पार करबामे मदति करियन्हि। एक बेर खैरताबादक लग सड़क पार करबा काल हुनकर आँखि नोरसँ आद्र भऽ गेलन्हि।
“अहाँ कतए जन्म लेलहुँ...कतए अहाँ बढ़लहुँ...अहाँ कतेक टा भऽ गेलहुँ? अहाँ एहि पैघ नगरमे कोना रहए छी? अहाँ बहुत पैघ भऽ गेलहुँ...” ओ बड़ाई करैत कानए लगलीह।
“अहाँ जखन बच्चा रही तखन हम अहाँकेँ नानीगाम बससँ लऽ गेल रही। हम अहाँक हाथ कसि कऽ पकड़ने रही कि अहाँ कतहु हेराऽ ने जाइ। आब अहाँ एतेक पैघ भऽ गेलहुँ जे हमर हाथ पकड़ि बसपर चढ़बामे मदति करी”। ई कहैत ओ नोरक द्वारे ठहरि गेलीह। ओ खखसलीह, “खुस...खुस...” परिश्रमसँ अपन श्वास वापस अनलन्हि।
ओ जखन भूतकेँ मोन पाड़ि रहल छलीह हम हुनका सान्त्वना देलियन्हि आ हुनकर नोर पोछलियन्हि।
“अम्मी...हम एतए जीबाक इच्छासँ अएलहुँ। हम साहस केलहुँ आ कतेक रास कठिन क्षणकेँ सहन कएलहुँ। जखन दुखित रही, हम अपनेसँ दबाइ लए ले जाइ आ संगमे तखनो प्रत्यन करी।, ई सभ अम्मी...ई सभ अहाँक आशीर्वादसँ भेल, आकि नहि? एहि नगरमे अपना कहि कऽ संबोधित करए बला हमर क्यो नहि अछि, तखनो हम एतए बिना असगर रहबाक अनुभूतिक रहैत छी”। अपन आँखिक नोर पोछि कऽ ओ हमरा आशीर्वाद दैत कहलन्हि, “दीर्घायु रहू हमर पुत्र”।
समस्याक आरम्भ तकर बाद भेल।
“सभ जुम्मा..जुम्मा...अहाँ नमाज पड़ए छी हमर बाउ”? ओ पुछलन्हि।
“नहि माँ। कहू ने, कखन हमरा पलखति भेटैत अछि”?
“अहाँकेँ कहियो समय नहि भेटत, मुदा अहाँकेँ करए पड़त, एकरा छोड़बाक कोनो गुन्जाइश नहि अछि। मुस्लिमक रूपमे जन्म लेबाक कारण अहाँकेँ, कमसँ कम सप्ताहमे एक दिन समय निकालए पड़त”, ओ कहलन्हि।
आगाँ कहलन्हि, “धनिक आ गरीब नमाजक काल संग अबैत अछि। ओ सभ कान्हमे कान्ह मिलाए नमाज पढ़ैत छथि। ओहि दिन ई बेशी गुणक संग अबैत अछि। एक बेर हरेलापर अहाँ ओ आशीष कहियि घुरा नहि सकैत छी। ताहि द्वारे धनिक आ एहनो जो लाखमे रुपैयाक लेनदेन करैत छथि, अपन व्यवसायकेँ एक कात राखि नमाज पढ़ैत छथि। दोकानदार सभ सेहो अपन व्यवसाय बन्न कऽ दैत छथि बिना ई सोचने जे कतेक घाटा हुनका एहिसँ हेतन्हि। संगहि ओ गरीब सभ जे प्रतिदिनक खेनाइक जोगार नहि कऽ पबैत छथि, सेहो नमाज पढ़ैत छथि”।
हमरा डर छल जे हमर माँ वैह पुरान खिस्सा फेरसँ तँ नहि शुरू कऽ देतीह। विषय बदलि कऽ हम कहलियन्हि, “की अहाँकेँ बुझल अछि जे एतए निजाम नवाब द्वारा निर्मित एकटा पैघ मक्का मस्जिद अछि...”?
“एहन अछि की? हमरा अहाँ ओतए नहि लऽ चलब”? ओ उत्साहसँ बजलीह।
“जखन अहाँ ओतए पहुँचब तँ हमरा नमाज पढ़बा ले अहाँ नहि ने कहब”। हम विनयपूर्वक प्रार्थना कएलियन्हि।
“हमर बाउ...अहाँ ई की कहैत छी...हम अहाँकेँ ई सुझाव अहाँक अपन भलाइ लेल दैत छी”।
“ठीक छैक..चलू चली”! हम सभ ओतएसँ बस द्वारा सोझे मस्जिद गेलहुँ। ओ चारमीनार दिस देखलन्हि जे मस्जिदकक मीनारसँ बेशी पैघ रहए।
“अम्मी ओ छी चारमीनार। हम पहिने ओतए चली..आकि मस्जिद”? हम पुछलियन्हि।
“ओतए चारमीनारमे की अछि हमर बाउ”?
“ओतए किछु नहि अछि...कोनो दिशामे देखू एके रंग लागत। मुदा अहाँ ऊपर चढ़ि सकैत छी। ओतएसँ अहाँ मक्का मस्जिद स्पष्ट रूपमे देखि सकैत छी...आब देरी भऽ गेल अछि। हम चारमीनार बादमे देखि सकैत छी...अखन तँ हमरा सभ मस्जिद देखी”। ओ स्वीकृति देलन्हि।
मस्जिदक भीतरमे शान्ति रहए। शान्तिक साम्राज्य छल। ई शीतल, सुखकारी आ विस्तृत रहए। आगन्तुकक आबाजाही बेशी रहए। अम्मी भीतर जएबामे संकोच कऽ रहल छलीह कारण स्त्रीगण सामान्यतः मस्जिदमे नहि प्रवेश करैत छथि। मुदा ओ किछु बुरकाधारी स्त्रीगणकेँ ओतए देखि ओम्हर बढ़ि गेलीह।
अपन सारीक ओरकेँ माथपर लैत ओ बजलीह, “हमहूँ अपन बुरका आनि लैतहुँ ने”? घरसँ चलैत काल ओ एहि लेल कहने रहथि मुद ई हम रही जे हुनका एकरा पहिरएसँ रोकने रही। अपन ठामपर हुनका लेल एकरा छोड़नाइ सम्भव नहि छलन्हि मुदा हम एहि नव स्थानपर हुनका एहि झंझटसँ मुक्ति देमए चाहैत रही। मुदा अपन सम्प्रदयक स्त्रीगण बीचमे बिना बुरका पहिरने ओ अपनाकेँ बिना चामक अनुभव कऽ रहल छलीह। जखन हम हुनका स्तंभित आ थरथराइत चलैत देखलियन्हि तखन हम हुनका बुरका नहि पहिरए देबाक लेल लज्जित अनुभव कएलहुँ। तैयो अपन रक्षा करैत हम कहलियन्हि, “हम कोना ई बुझितहुँ अम्मी जे हमर सभकेँ मस्जिद घुमबाक ब्योँत लागत”।
ओ किछु नहि बजलीह।
“एहिसँ कोनो अन्तर नहि पड़ैत अछि...आऊ”। हम बादमे ई कहि हुनका भीतर लऽ गेलहुँ। ओ हमर संग अएलीह। हम सभ अपन चप्पल कातमे रखलहुँ जाहिसँ बादमे ओकरा लेबामे आसानी होए। कतेक गोटे मस्जिदक सीढ़ीयेपर आलती-पालथी मारि कए बैसल रहथि। परबाक संग खेलाइत किछु गोटे ओकरा दाना खुआ रहल रहथि। किछु परबा उड़ि गेल आ किछु आन घुरि कए उतरल। किचु परबा पानिक चभच्चाक कातमे बैसि कऽ एम्हर-ओम्हर ताकि रहल रहए, एकटा आह्लादकारी दृश्य। अम्मी हुनकाँ आश्चर्यित भऽ देखलन्हि। बादमे ओ हमर पाछाँ अएलीह जखन हम सीढ़ीक ऊपर प्लेटफॉर्मपर पहुँचलहुँ।
प्लेटफॉर्मकेँ चारू दिस देखैत ओ चिकरि कए बजलीह, “हमर बाउ, एक बेरमे कतेक गोटे एतए बैसि कऽ नमाज पढ़ि सकैत छथि”?
“हमरा नहि बुझल अछि अम्मी...कैक हजार हमरा लागए-ए। रमजानक दिनमे लोक चारमीनार धरि बैसि कऽ नमाज पढ़ैत छथि”। हम उत्तर देलियन्हि। “हँ, ई टी.वी. मे देखबैत अछि” अम्मी प्रत्युत्तर देलन्हि। ओ एकरा नीकसँ चीन्हि गेल रहथि, हम अपनामे सोचलहुँ। चारू कात देखाऽ कऽ अन्तिममे हम हुनका मस्जिदक पाछाँ लऽ गेलहुँ। पाथारक फलक चिड़ैक मलसँ मैल भेल रहए। परबा सभ देबालक छिद्रमे खोप बनेने रहए।
ओ मीनारक देबालकेँ छूबि आ आँखिसँ श्रद्धापूर्वक सटा कऽ अति प्रसन्न भऽ गेलीह।
“एतए नमाज पढ़ब पवित्र गप अछि, हमर बाउ”, ओ कहलन्हि। हम एहि बेर कोनो अति सम्वेदना नहि भेल।
“हँ। ठीके, हम एतए कमसँ कम एक बेर नमाज अवश्य पढ़ब”। हम अपनाकेँ कहलहुँ।
हम जतए रहैत छी मक्का मस्जिद ओतएसँ बड्ड दूर अछि। जुम्मा आ छुट्टीक दिन बससँ एतए अएनाइ बड्ड दुर्गम अछि। तैयो, अगिला बेर हम एतहि नमाज पढ़बाक प्रण कएलहुँ।
“हम अगिला सप्ताह् एतए आबि नमाज पढ़ब अम्मी”, हम कहलियन्हि। ओ प्रफुल्लित अनुभव कएलन्हि आ हमरा दिस आवेशसँ देखलन्हि।
“एहि सभ ठाम नमाज पढ़बामे अपनाकेँ धन्य बुझबाक चाही”, ओ कहलन्हि।
“अहाँक अब्बा ओतेक दूर रहैत छथि, ओ की नमाज पढ़बाक लेल एतए आबि सकैत छथि? अहाँ अही नगरमे छी..एतए नमाज पढ़ू”, ओ कहलन्हि। “नहि मात्र एतए, जतए कतहु पुरान मस्जिद होए ततए नमाज पढ़ू। कतेक प्रसिद्ध लोक एतए नमाज पढ़ने होएताह। एहि सभ ठाम नमाज पढ़लाक बाद कोनो घुरए केर गप नहि अबैछ। अल्ला अहाँकेँ निकेना रखताह”।
हम मस्जिदमे एना ठाढ़ रही जेना जादूक असरि होए। हम हुनकर गप सुनलहुँ, कान पाथि कऽ। बदमे, बाहर निकललाक बाद हम सभ किछु बिसरि गेलहुँ। अपन मस्जिद जएबाक प्रतिज्ञाकेँ सेहो हम कात राखि देलहुँ। ओही संध्यामे हम अम्मीकेँ बस-स्टैण्डपर छोड़लहुँ। तकर बादा दू टा जुम्मा बीतल, मुदा से एना बीतल जेना ओ कोनो जुम्मा नहि छल। आब बम विस्फोटक एहि समाचारक बाद हम जुम्मासँ भयभीत छी।
“अम्मी...अहाँकेँ ईहो बुझल अछि जे कोन मस्जिदमे बम फूटल छल”? हम फोनपर पुछलियन्हि।
“कोनमे हमर बाउ”? ओ उत्सुक भऽ पुछलन्हि।
“अहाँ एक बेर हैदराबाद आएल रही, मोन पाड़ू? हम नञि अहाँकेँ एकटा मस्जिदमे लऽ गेल रही...मक्का मस्जिद...पैघ सन? ओतहि, ओही मस्जिदमे...खुनाहनि ओही मस्जिदमे अम्मी...खसैत लहाश.. अहाँ कहने रही जे कियो जे ओतए नमाज पढ़त, धन्य होएत...ओही मस्जिदमे अम्मी”। हम कहलियन्हि। “छोट बच्चा सभ...ओकर सभक देह खोनमे लेपटाएल...परबा सभ सेहो मरल...”।
नोर अनियन्त्रित दुखमे बहए लागल। हम बाथरूम लग नोर पोछबाक लेल गेलहुँ। हुनक हृदय हमर काननि देख फाटए लगलन्हि। ओ सेहो कानए लगलीह। हम आगाँ कहलहुँ, “अम्मी, नहि कानू...अब्बाकेँ होएतन्हि जे हमरा किछु भऽ गेल अछि...हुनका कहियन्हि जे हम नीकेना छी”।
कनैत ओ हमरा पुछलन्हि, “फोन नहि राखब हमर बाउ”।
“जल्दी अम्मी, कहू”।
“अहाँ चलि आउ...गाम चलि आउ...हमर गप सुनू”।
“हमरा किछु नहि भेल अछि अम्मी”।
“बाहर नहि जाएब..हमर बाउ”।
“ठीक छैक अम्मी”।
“ओहि मस्जिदमे नहि जाएब, हमर बाउ”।
हमर हृदय फटबा लेल फेर तैयार अछि। हम हुनका ई आश्वासन दैत जे ओहि मस्जिदक लगो कोनोठाम हम नहि जाएब, फोन रखलहुँ।
मुदा विचारक आगम बढ़ैत रहल। कतेक विभिन्नता! कतेक परिवर्तन काल्हिसँ! ई हमर अम्मी छथि जे एना बाजि रहल छथि? ई ओ छथि जे हमरा ई बाजि रहल छथि जे मस्जिदक लगो कोनोठाम नहि जाऊ? अल्ला कोनो आन भऽ गेल छथि अपन बच्चाक प्रेमक आगाँ? अपन खूनक आगाँ अल्ला अस्वादु भऽ गेलथि? नमाज विरोधक योग्य भऽ गेल? अल्ला माफी दिअ! क्षमा करू! आन जुम्माकेँ कोनो खुनाहनि नहि हो..औज बिल्लाही..मिनाशैतान...निर्राजीम..बिस्मिल्लाह इर्रहमा निर्रहीम...!
(ओहि सभ अम्मीजानकेँ समर्पित जिनका मक्का मस्जिदक बाद अपनाकेँ हमर अम्मी जकाँ परिवर्तित होमए पड़लन्हि...लेखक)
अजय सरवैया, गुजराती कवि
गुजरातीसँ अंग्रेजी अनुवाद हेमांग देसाई द्वारा। अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद गजेन्द्र ठाकुर द्वारा।
अहाँक तामस हमर स्वागतपथ
“अहाँ आवेष्टित छी प्रतिध्वनि आ मोहक स्वरसँ”. पाब्लो नेरुदा
चक्रधर आ पीयुषक लेल
१.
“कहि धरि हम खिचैत रहब एना”? ओ पूछत
आद्र मुखसँ
हेराएल आँखिसँ
हम राखब सोझाँ शब्दकेँ, ओ रखतीह नियमावली
हम करब सोझाँ अपन इच्छा, ओ भ्रमकेँ
हम देबन्हि मेघ, ओ चक्र
हम आनब प्रश्न, ओ पलायन
हम प्रतिभाक प्रेमी, ओ बन्धनक
हम स्वप्नक आकांक्षी, ओ निर्जनताक
कहिया धरि? हम बुझलहुँ नीक जकाँ
हमर भाग्य रहए फराक
हमरा सभक दिन राति सेहो
ऋतु आ पाबनि तिहार जकाँ
समय काल हमरा सभक अन्तर
हमरा सभक विभिन्नता रहए विभिन्न
हमरा सभ प्रेम करैत रही
कतेक दिन धरि?
राजेन्द्र पटेल, गुजराती कवि
गुजरातीसँ अंग्रेजी अनुवाद हेमांग देसाई द्वारा। अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद गजेन्द्र ठाकुर द्वारा।
हम किएक कऽ रहल छी अनुभव
धरा बिन शाखक
बिना एहि हाथक?
पसारैत दूर आ विस्तृत
जीवित साँपक ताकिमे
ई सभ हाथ एक दोसरमे ओझराएल
आ समाप्त होइत मात्र नहक वृद्धिमे।
बाबाक छड़ीक पकड़िसँ
बसक ठाढ़ होएबला लटकल चक्र
मुट्ठी अनैत अछि वैह अविचल शून्याकाश।
ओकर कए अनुभूति
ई सभ खेंचल कार कौआक हाथ
घुमि जाएत आकाश दिस
सभटा खेत अंकुरित प्रफुल्लित
पृथ्वीक गत्र-गत्रक
पाँजर खेतमे औंगठल
बाँहि जकाँ।
सभटा हरक फारक चेन्ह
भाग्य रेखा हाथक।
पंक्ति जोखि सकैए
मात्र हाथक लम्बाई
नहि एकर जड़ि
पहिने हम कए सकी एकर निदान
हाथक आक्रमण जड़िपर
श्वेत धरापर
रोशनाईसँ पसरल
अपन नव अंकुरित आँखिए
उड़ि गेल नव-जनमल पाँखिए
ओहि धूसरित गगनक पार
आब
सभटा मस्तिष्क कोशिकामे
हाथ रहैछ अहर्निश
प्रवेश कए रहल गँहीर आर गँहीर जड़िमे
पीयूष ठक्कर, गुजराती कवि
गुजरातीसँ अंग्रेजी अनुवाद हेमांग देसाई द्वारा। अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद गजेन्द्र ठाकुर द्वारा।
सांध्य बेला
साँझ होइते
शिशिर आह पर्वतक
आच्छादित कएल अकाश
अविलम्ब पड़त सम्पूर्ण आकाश फाँसमे
एहि पर्वतक छाहक
पर्वतकेँ भेटत अकाश
प्रकाशकेँ छाह
शरीर सुतत
हृदय दुखित
ओहिना जेना
ईश्वरकेँ भेटल मनुक्ख
पन्ना त्रिवेदी, गुजराती कवि
गुजरातीसँ अंग्रेजी अनुवाद हेमांग देसाई द्वारा। अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद गजेन्द्र ठाकुर द्वारा।
आमद
हे विदेशी!
देखाऊ हमरा एहन दृश्य
यदि अछि कोनो एहन
बिनु प्रकाश
बिनु गद्दक ओछाओन
बिनु छाह
जतए
नहिए अछि
चुप्पीक अंश
व्यथित हृदयक ध्वनि
नहिए ध्वनिक आँगुरक नोकक स्पर्श
देखाऊ हमरा ओ दृश्य
यदि अछि कोनो एहन
हौ विदेशी!
जतए
क्यो नहि करैछ एकत्रित
स्वासक मालगुजारि।
बाबू सुथार, गुजराती कवि
गुजरातीसँ अंग्रेजी अनुवाद हेमांग देसाई द्वारा। अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद गजेन्द्र ठाकुर द्वारा।
गृहमोह
१.
गंध पहिल बुन्नीक
आ हम
बैसि आ
पसारी एक-दोसराक दिस
भेदित पड़पड़ाइत बुन्नीक बुन्द
बलुआही माटि भेल
यथार्थ छननी
अएल प्रखर रौदक फोका
पाथरक चामपर
अविलम्ब
झझायत
छातक खपराक भूर
धारक संग उगडुम करत
नवतुरिआ बरद कछेरपर नाचत।
सभटा गलीमे
बरद सभ आनत पानि
सोलह टा पालो बान्हि गरदनिमे
सभ घरमे
धरनि सभ नहाएत जी भरि
देबालपर
गाछक छातीपर
स्मृतिक शिलालेखपर
हदसैत पानि
खोलत
हस्ताक्षर भगवानक पूर्वजक।
बराखक संगे
चमकैत आकाश
माएक कोमल तरहत्थी।
सूर्य करत आच्छादित
वृक्षक
शाखक
पातक
पँखुडिक।
टाँगल पक्षिक आवास
सभ गृहक बाहर
मयूर सभ करत नृत्य।
जेना प्रिय नव वधु
मयूरीक माथपरक जलक घट
गामक दोगहीसँ निकलत
अनबा लए पानि
छिटैत नहक आकारक झील
वैतरणी डुमाएत
रीढ़युक्त नागफनीक पात।
संग
जीव आ शिव
करत अष्टमी आ एकादशी
चन्द्रमा उगत
चुट्टीक कटगर पीठपर
चाली सभ बहराएत
आडम्बरसँ राजसी मुकुट धेने
सत्ये
किछु अकठ अछि हमरा सभक भाग्यमे
आइ
आइ
गंध पहिल अछारक
आ हम
बैसि आ
पसरैत एक दोसरामे।
वासुदेव सुनानी, ओड़िया कवि
ओड़ियासँ अंग्रेजी अनुवाद शैलेन राउत्रॉय आ अंग्रेजीसँ मैथिली गजेन्द्र ठाकुर द्वारा
अनुमति
हमरा अनुमति अछि श्रीमान!
हम कए ली विश्राम कनेक काल?
अहाँक आदेशानुसार
छाह केँ देने अछि बहारि,
बत्तू केँ देने छी खोआए,
अहाँक नालाकेँ कए देने छी साफ,
नहि रहत कोनो दुर्गन्ध आब।
हमर अछि ढोल बजबए बला मधुमाछी
युगसँ अहाँक मनोरंजनार्थ
आ हमर आँगुर स्थिरताक राखए आश
हम करी विश्राम थोड़बे काल?
हम करैत छी अनुभव पुरखाक स्वेद
हमर देव, हमर मृतात्मा।
ताहि लेल प्रिय श्रीमान्
घंटा भरिक विश्राम मात्र अभिवादन जकाँ
किएक तँ हमर दुर्गन्ध, स्वेदक आ किछु आन वस्तुक।
हम करए छी प्रतीक्षा अहाँक नीक समय तृप्तिक
संगहि अपन कीट-संक्रमित जिनगीक समाप्तिक संकेतक।
प्रतीक्षा सेहि भरि दैत अछि थकान, श्रीमान् प्रियवर
विशेषकए लाख बरखक जहुँ ई होए।
से हम करए छी विश्राम थोड़ेक काल, श्रीमान्?
कारण हमरो सन् तुच्छकेँ बुझल छैक छोट-मोट विद्रोहक कला।
भरत माँझी, ओड़िया कवि
ओड़ियासँ अंग्रेजी अनुवाद शैलेन राउत्रॉय आ अंग्रेजीसँ मैथिली गजेन्द्र ठाकुर द्वारा
हमर घुरलाक बाद
हमर घुरलाक बादो ओहि स्थानके नहि छोडू रिक्त
पकड़ने रहू ओकरा।
फूल सभकेँ नहि फेकू
की कोनो महत्व अछि एकर जे ओ टटका फुलाएल अछि आकि अछि मौलाएल?
खोलू हमर सभटा नुकाएल भोथियाएल स्वप्न,
ओकरा अलंकृत कए।
उनटि दिअ सभ ठामक लैम्पकेँ,
आ रोकि दिअ अन्हारक प्रति घृणा
बिना घबरेने देखू समुद्र
आ तखनो नहि करू घृणा अकाससँ।
नेहोरा अछि!!!
पृथ्वीकेँ बुझू एकटा सममिश्रित स्थान
प्रयास करू आ ठाढ़ रहू ओतए।
कृपया बाट ताकू अपन
आ से करए काल, रहू जागल!
मोन राखू, हम घुरब एहि पृथ्वीपर जे एहन एकेटा अछि
राखू मोन कि हम घुरब
हम बाउग केने छी पथकेँ सरिसवक बीआसँ,
मोन राखू ओ पथ



अन्हार- अशोक हेगड़े
कन्नड़मे तीन टा कथा संग्रह आ एकटा उपन्यास। प्रशिक्षणसँ अर्थशास्त्री आऽ व्यवसायसँ वित्त प्रबम्धक श्री हेगड़े अपन दोसर उपन्यासपर कार्य कऽ रहल छथि।
अनुवाद कमलाकर भट्ट (कन्नड़सँ अग्रेजी)- श्री भट्टक अनुवादक अतिरिक्त मूल कन्नड़ कविता संग्रह सेहो प्रकाशित छन्हि जकरा २००६ ई.क पुटीणा कविता पुरस्कार भेटि चुकल अछि।
आऽ गजेन्द्र ठाकुर (अग्रेजीसँ मैथिली)।
कोनो दिन एना शुरू नहि हेबाक चाही, ओकरा सभदिन लगैत छैक। आऽ एकटा आर एहने दिनक प्रारम्भ भेल, प्ररम्भ होएबासँ पहिने हड़बड़-दड़बड़मे कार्य सभ। दूधबला दूध नहि दऽ गेल से ओ बगलमे धरफड़ीमे गेलाह पैकेट बला दूध अनबाक लेल। कमोडपर बैसल ओऽ भोरुका अखबारक सम्पूर्ण रिपोर्ट पढ़लन्हि निकृष्ट भ्रष्टाचारी आऽ हुनकर संगी सभक विषयमे। एकटा विज्ञापन छल जाहिमे एकटा फिल्म अभिनेताक हालमे जनमल बच्चाक नामक सुझाव दऽ कऽ पुरस्कार जितबाक प्रेरणा छल। एहि सभ जल्दीबाजीमे ओऽ अपन पुत्रकेँ नहेलक आऽ ब्लैकबेरीपर किछु कार्य सम्पन्न केलक, जलखै सोझाँ छल आऽ आब एतेक थाकि गेल जे बजबाक इच्छो धरि नहि रहलैक। ओकर पत्नी कहलकाइक जे माँक फोन आयल रहए गप कए लिअन्हु। माँ पुछि रहल छलीह जे ई सभ छुट्टीमे गाम अएताह की? ओकरा आब एतेक धैर्य नहि बचलैक जे ओ माँसँ गप करि सकितए। मनोहर कनियासँ झझकारि कए बाजल- “उत्तर हमरे द्वारा देब जरूरी अछि। फोनपर अहाँ गप नहि सम्हारि सकैत छलहुँ?”
कनियाँ सिन्कमे अपन हाथ धो रहल छलीह, “आइ काल्हि अहाँक संग की भऽ रहल अछि? अहाँसँ अहाँक बिनु हमरापर गुम्हरेने गप नहि कऽ सकैत छी? अहाँ आऽ अहाँ माय..हम किएक बीचमे आऊ? मोन अछि तँ हुनका फोन करू नहि तँ नहि करू। हम काजपर जेबामे देरी भऽ रहल छी”। पत्नी ओकरा जलखै करैत छोड़ि ऑफिस बिदा भऽ गेलीह।
जहिना ओऽ रोड धेलक तँ कनेक घुरमी अएलैक। एफ.एम.पर सुनयना रूट वन होस्ट कऽ रहल छलीह आऽ बड़बड़ा रहल छलीह। तरह-तरहक विज्ञापन, फोनक एनाइ, ई गीत हमरा भाए लेल बजाऊ, ओऽ गीत हमर प्रेमी लेल, ओतेक छुन्दर-मुन्दर माधुरीक तेसर बच्चाक नाम बताऊ, फोरम मालपर सलमान खानक संग आइसक्रीम खएबाक मौका जीतू.. ओकर घुरमी बढ़ि गेलैक। रेडियो बन्न कऽ ओ बाहर देखलक, ट्रैफिक जाम, धुँआ, गरदा, यातायात पुलिस सीटी बजबैत...पिरररर्र, भीतर घुसैत गाड़ी सभ द्वारा अवहेलना सहैत, सभ दस गजपर लाल-बत्ती, बी.टी.एस.बस सभ दौगैत भगवाने जानथि कतएसँ आऽ कोना कए, स्कूटर, रिक्शा, साइकिल, लॉरी, आऽ एहि सभक बीच बूढ़ बरद सभ पुरजोड़ लगा कए भरल कटही गाड़ीकेँ घीचैत, लोक सभ लहराइत पैसैत अबैत.. ओऽ ई सभ खौँझाहटि नहि बरदास्त कए सकल।
डॉ वी.वी.बी.रामाराव (१९३८- ) हिनकर ३४ टा रचना प्रकाशित छन्हि जाहिमे मौलिक अंग्रेजी आऽ तेलुगु रचना सम्मिलित अछि।
अनुवाद मूल लेखक द्वारा तेलुगुसँ अग्रेजी आऽ
गजेन्द्र ठाकुर द्वारा अंग्रेजीसँ मैथिली।
अभाग
शीतलहरि सरसरा कए बहि रहल छल। घटाटोप बरखा धमगिज्जर मचेने छल। बिर्रोक बाद।
ई बीच रातिक बादक पहरि छल। घुप्प अन्हरियामे हमर माथक ऊपरका करवस्त्र कोनो सुरक्षा नहि छल। कपड़ा बड्ड अबाज कए रहल रहए आऽ हम सुन्न सड़कपर संघर्ष कए आगाँ बढ़ि रहल छलहुँ। सड़कक स्ट्रीट लाइट काज नहि कए रहल छल।
हम अपन कोठली कोनहुना पहुँचलहुँ मुदा ओतए ताला हथोड़िया देलासँ नहि भेटल। हमर थाकल हृदयसँ बान्हल मुट्ठी एड्रीनेलिनक प्रवाह केलक आऽ हम शीत घामसँ नहा गेलहुँ। हम केवाड़ीकेँ धक्का देलहुँ आऽ किएक तँ ई भीतरसँ बन्न नहि छल से कर्रसँ खुजल। हम भीतर गेलहुँ आऽ बत्ती जरेलहुँ। आश्चर्य, बत्ती प्रवासँ जरल। चलू कमसँ कम ई तँ बचल, हम निशास लेलहुँ।
सरोजिनी साहूक ओड़िया कथा “दुःख अपरिमित” केर मैथिली अनुवाद
गोपा नायक (ओड़ियासँ अंग्रेजी) आऽ गजेन्द्र ठाकुर (अंग्रेजीसँ मैथिली) द्वारा।
सरोजिनी साहू (१९५६- ), ओड़िया साहित्यमे पी.एच.डी., बेलपहाड़, झारसुगुड़ा, उड़ीसामे अध्यापन। महिला साहित्यक अग्रणी लेखिका, पाँच टा उपन्यास आऽ सात टा कथा संग्रह प्रकाशित। १९९२ मे झंकार पुरस्कार आऽ १९९३ मे उड़ीसा साहित्य अकादमी पुरस्कार।
गोपा नायकक जन्म भुवनेश्वरमे भेलन्हि आऽ ओतहि आरम्भिक जीवन बितलन्हि। सम्प्रति ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयसँ डी.फिल. कए रहल छथि।
दुःख अपरिमित
कथाक शीर्षक दुःख अपरिमित उड़ीसाक सन्त आऽ कवि भीमा भोइक ऋचासँ लेल गेल अछि।
प्राणीर अरात दुःख अपरिमित
जानु जानु केबा साहु
ये जीवन पाछे नरके पदिथौ
जगत उधार हेउ
जीवनक दुख
जीनाइ, काटनाइ, सहनाइ,
किएक?
हमरा जरए दिअ होमक ज्वालमे
संसार जीबए
दुःख अपरिमित
पेन नहि खसितए यदि सोनाली एकरा हमरा हाथसँ नहि छिनितए। हमर माय बेर-बेर हमरा कहलन्हि जे पेन स्कूल नहि लऽ जाइ, मुदा पेन एतेक सुन्दर रहए जे हम एकरा अपन संगी सभकेँ देखबए चाहैत रही। सभ दिन हम पेनसँ किछु काल धरि खेलाइत रही आऽ फेर ओकरा आपस दराजमे ओद्इया कए राखि दैत छलहुँ। हमर एकटा काकी एकरा विदेशसँ अनने रहथि आऽ हमरा सनेसमे देने रहथि। हमर माय कहलक जे ई पेन सत्ते बड्ड महग रहए। पेन लिखैत काल चमकैत छल। पेनक एक कात एकटा छोट घड़ी रहए। हम पेन स्कूल अनने रही प्रेमलताकेँ देखबए लेल। ओकरा होइत रहए जे हम पेनक विषयमे झूठ बाजल रही। ओऽ कहने रहए जे एहन पेन एहि विश्वमे नहि उपलब्ध छैक। आऽ ताहि द्वारे ओकरा देखबए लेल हम एकरा स्कूल अनने रही। हम ओकरा स्कूलक क्रीडाक्षेत्रक एक कात लए गेलहुँ आऽ ओकरा ई पेन देखेने रही। हम बीचमे टिफिनमे बाहर खेलाइ लेल नहि गेलहुँ कारण ई अंदेशा रहए जे क्यो एकरा चोरा नहि लए। प्रेमलता कहलक जे ई रहस्य ओ ककरो नहि बताएत मुदा सोनालीकेँ ओऽ कहि देलक। स्कूलक छुट्टीक बाद सोनाली हमरा पेन देखबए लेल कहलक।
शीला सुभद्रा देवी (१९४९- ) कैकटा तेलुगु पद्य संग्रह प्रकाशित। १९९७ ई. मे तेलुगु विश्वविद्यालयसँ उत्तम लेखकक पुरस्कार प्राप्त।
जयलक्ष्मी पोपुरी, निजाम कॉलेज, ओस्मानिया विश्वविद्यालयमे अध्यापन।
तेलुगुसँ अंग्रेजी अनुवाद
गजेन्द्र ठाकुर (अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद)।
पसीझक काँट
बाड़ीमे लगाओल पसीझक काँट गहना लेल
केना ओऽ सभ पसरैतत अछि सोहड़ैत!
चुपचाप बुनैत रस्ता आच्छादित करैत स्थान।
भीड़-भाड़ सभठाम
सभ कोणमे काँटबला पसीझक झाड़
सभ, सभ रोकैत स्नेहक अनवरुद्ध प्रवाह
चिन्तन विखण्डित पड़ि काँटक मध्य
वाणी अवरुद्ध फँसि कोनो झाड़
मस्तिष्क उर्ध्वपतित चुपचाप
हृदय बनैछ मात्र एकटा अंग
आऽ मौन करैत राज यांत्रिक रूपे॥
मुनैत, बहत नहि हवा एकताक
तेनाकेँ ठुसैत
सभक आश कोनहुना निकसी आकाश।
मुदा की अछि विस्तृत खेत मध्य?
कतए गेल फूलक क्यारी फुनगैत मित्रताक
हिलबैत अपन माथ आमंत्रणमे?
कतए गेल ओ चाली सभ अपन तन्तुसँ बढ़ैत?
सभकेँ समेटैत ओ लता-कुञ्जक मंडप कतए गेल
छोड़ि मात्र अशोक आऽ साखुक वृक्ष
जे पसारि रहल आकाश मध्य अपन हाथ
नीचाँ देखैत विश्वकेँ
घासक पात सन तुच्छ?
यदि हम मोड़ी आऽ घुमी घोरैत अपनाकेँ नोरमे
वेधए बला मोथा नहि भोकैत अछि मात्र पएर वरन् आँखि सेहो।
सभठाम लोक उन्मुक्त ठाममे
मानवीय सम्पर्कसँ घृणा करैत
परिवर्तित कएलक नगरकेँ सेहो बोनमे।
पसारैत काँट सभ ठाम
परिवर्तित भेल पसीझक झाड़मे
साँसक फुलब पसरैत चारू दिश
दोसराक संवेदना नहि आबए दैछ विचार
जिनगी भेल उसनाइत खेत सन।
इच्छा भागबाक पएर केने आगाँ।
आश्चर्य, मथि नहि सकैत छी, औँठा धरि।
देखि सकी जौँ अपनेकेँ मात्र
भीतरसँ बाहर पसीझक काँट मात्र।
एन. अरुणाक जन्म निजामाबाद लग एकटा गाममे १९४९ ई.मे देलन्हि। तेलुगुमे पाँचटा कविता संग्रह प्रकाशित।
जयलक्ष्मी पोपुरी, निजाम कॉलेज, ओस्मानिया विश्वविद्यालयमे अध्यापन।
तेलुगुसँ अंग्रेजी अनुवाद
गजेन्द्र ठाकुर (अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद)।
ई सेहो अछि प्रवास
अहाँ नहि छी मानैत
मोटा-मोटी ईहो छी प्रवास
एकर गुण
षडयन्त्र जेकाँ
मूल जन्मकालेसँ
“तैयो अछि तँ बेटीये” अछि ने ई?
कोनो पुरुषक हाथमे तँ जएबाके छैक ने एक दिन
प्रवास
मात्र अमेरिके टा प्रवासक नहिक नहि
नारी सेहो अछि एकटा ई।
अहाँ एकर अवहेलना कए सकैत छी सुविधासँ।
तैयो कतेक कठिन
छोड़ब जिनगी भरिक लेल अपन जन्मस्थान
पाएब एकटा अनचिन्हारक आँगुर?
अहाँ घुरि सकैत छी कखनो काल
मुदा बनि मात्र पाहुन।
जखने हम पएर राखब
कतेक काल धरि अहाँ रहब पुछब हमर लोककेँ।
“जाऽ धरि हम चाही”
इच्छा अछि कहबाक
मुदा श्रृंखला ससरल हमर इच्छापर बहुत पहिनहि।
प्रवास नहि अछि हर्खक वस्तु।
छोड़ि ई मात्र जे समय बितने
बढ़ैत अछि ई बनैत अछि अभ्यास।
मोहम्मद खदीर बाबू (१९७२- ) नेल्लूर जिलाक कवालीमे जन्म। तेलुगुमे तीन टा कथा संग्रह। भाषा सम्मान आऽ कथा पुरस्कारसँ सम्मानित।
जयलक्ष्मी पोपुरी, निजाम कॉलेज, ओस्मानिया विश्वविद्यालयमे अध्यापन।
तेलुगुसँ अंग्रेजी अनुवाद
गजेन्द्र ठाकुर (अंग्रेजीसँ मैथिली अनुवाद)।
हमरा सभक चित्रकला शिक्षक हमरा सभक भगवान छथि
कोनो स्कूलमे सभसँ उत्साही आऽ सभसँ दुष्ट आर क्यो नहि वरन् सीनियर होइत छथि।
की! सोचि रहल छी जे एक्के समयमे हम ककरो उत्साही आ दुष्ट कोना कहि रहल छी! थम्हू अहाँकेँ कहैत छी।
जखन हम सभ अठमामे छलहुँ तँ दू टा क्रिश्चियन छौड़ा सेहो , एबनेजर आऽ डेविड दसमामे। ओ दुनू एतेक नमगर छल आऽ ओकर सभक जाँघ तेहेन रहैक मुदा तैयो दुनू टा हाफ पैंटमे अबैत रहए।




कवि अन्नावरम् देवेन्दर आन्ध्र प्रदेशक करीमनगर जिलासँ छथि आ तेलुगु भाषाक तेलंगाना बोलीमे तेलंगाना राज्यक संवेदना आ संस्कृति आ ओकर अलग राज्यक लेल संघर्षकेँ स्वर दैत छथि। हुनकर छह टा कविताक संग्रह छपल छन्हि। महात्मा जोतिबा फुले फेलोशिप २००१, रंजनी कुन्दुरती कविता पुरस्कारम् २००६, डॉ. मलयश्री साहिति पुरस्कारम् २००६, रांगिनेनी येनम्मा साहित्य पुरस्कारम् २००७ पुरस्कारसँ सम्मानित। ओ जिला परिषद, करीमनगरक पंचायती राज विभागमे सीनियर असिस्टेन्ट छथि।
पी.जयलक्ष्मी, ओस्मानिया विश्वविद्यालयक , निजाम कॉलेज हैदराबादमे अंग्रेजी विभागमे एसोसिएट प्रोफेसर छथि। विगत ३० बरखसँ अंग्रेजीक अध्यापन। हुनकर विशेषज्ञता अंग्रेजीमे भारतीय कविता, अनुवाद आ अनुवादशास्त्र अछि।२००३ मे भार्गवी रावक संग मिलि कऽ शीला सुभद्रा देवीक सितम्बर ११ आ ओकर परिणामपर तेलुगु काव्यक अंग्रेजीमे वार अ हर्ट्स रैवेज नामसँ अनुवाद। २००७ मे गोपीक ननीलू केर अंग्रेजी अनुवाद। स्प्रिन्ग नामसँ अन्नावरम् देवेन्दरक कविताक अंग्रेजी अनुवाद प्रेसमे अछि।


पानि अछि , मात्र आँखिक नोर

ठोप, ठोपे टा मे
टपटप खसैत पानि ठोपे-ठोपे,
हम नहि कऽ सकैत छी वर्णित,
पानि नहि बहैत अछि निरावरोध,
सुबर्ना नहि अछि भरैत कखनो।

कलसँ भनसाघर धरि,
भनसाघरसँ सोझाँक बारी धरि
भागैत एतएसँ ओत्तऽ
एम्हर-ओम्हर करघाक नमरैत ताग सन
वस्त्रक संरचना सन
एक्के घुमानमे हम जाइ छी घूमि।

कनैत बाल, पानि भरबाक अछि काल
दूधक झोँक आ हमर रजस्वला एकान्त
हुँह ! सभटा एक्के बेर !

पानि मात्र सप्ताहमे दू दिन,
छौँकी आ झगड़ा कलपर
तैयो छी हम सभ स्त्री
जे रहैत छी मिलि कऽ
बेकाल मे
दैत प्राणोक उत्सर्ग।

ई सभटा झंझवात पानिये टा लेल
नहि कहि सकैत छी अहाँकेँ अपन पानिक समस्या-
सम्पूर्ण भोर खतम होइत अछि एहि १५ मिनटक कार्यक लेल
कनेक काल भातक बिनु बिसरियो सकैत छी
मुदा बिनु पानिक जीवन चलत?
एकत्रित भेल जे नहि अछि हमर बेटोक लेल पर्याप्त
ताहि लेल, रस्सा भरि नमगर पाँति।

के अकानैत अछि संघर्ष?
घर भरल लोक
गाछ जेकाँ ठाढ़
आकि कुरसी जेकाँ बैसल
तमसाइत हमरापर जे हम छी पछुआएल
दौगैत छी बिनु लक्ष्यक।

मुदा नहि हिलबैत छथि आँगुरो हमरा सहायतार्थ
हमर हाथ ओहि बोरिंगकेँ ठीक करैत भेल जे चोटिल।

ओहि पम्पकेँ पीटैत निकलैत अछि मात्र छुच्छ ध्वनि
हमर प्राण बहार भऽ जाइत अछि ओतए काज करैत
कर्र कर्र कर्र कर्र
हमर बाँहिक दर्द आ छातीक पीड़ा
पाताल धरि
पानि बिला जाइत अछि कतहु गहींर नीचाँ
मुदा तैयो नहि बकसैत
जे हम काज करैत छी खतम करबाक लेल
चम्मच भरि पानिक बुन्द
सेहो गन्हाइत।

कान्ह भेल भोथ
ठेला परल सुवर्णा उघैत
ब्लाउज फाटल
एकटा अल्प जीवनक बाद
हमरामे नहि अछि एकर जोड़-तोड़ करबाक सक्क
हम की कऽ सकैत छी बहिन?
पानिक चरचे मात्र
मृत्युक डरकेँ अछि खोंचारैत
पानि अछि, आँखिक नोर मात्र...
“नीलान्टे कन्नीले...” मनकम्मा थोटा लेबर अड्डासँ


रहमान राहीक काश्मीरी कविता- “परछाइयाँ” (कश्मीरीसँ अंग्रेजी एस.एल. सन्धु, अंग्रेजीसँ मैथिली गजेन्द्र ठाकुर)
छाह सभ
अपन नियतिसँ वाद आ अमरताक आशा आब छोड़ि दिअ,
यदि जुटा ली किछु क्षण, तँ भेर भऽ जाऊ ताहिमे।
बस्तीक जाहि पथमे चलैत रहलहुँ, ओ धँसि गेल घनगर बोनमे,
जेना हमर आस्थाक कवच भेल भेद्य केलक शंकासभ।
आँखि खुजिते हमर स्वप्नकेँ लागल आँखि
सभटा बासन्ती युवा छाती झरकि कए भऽ गेल सुनसान।
देखू तँ देखायत आस-पड़ोसमे लावण्यमयी मेला,
हाथमे आएत मात्र एकाध विचार, आऽ
असगर एकटा कौआ उजाड़मे।
कखनो हमर इच्छा रहए चान-तरेगन गढ़बाक,
आब माथ भुका रहल छी अपन कोनो नामकरण तँ करी।
सभटा विश्वास घाटीक मौलायल हरियरी सन,
सभटा चैतन्य खिसियायल साँप सन।
सभटा देवता हमर अपन छाह छथि,
सभटा दानव हमर अहं केर कनिया-पुतड़ा सन।
सभा भवन भरल बुझू बानरक खोँ-खोँ सँ,
सन्तक पहिरनक लेल ताकू बोने-बोन।
केहन अछि नाओक खेबनाई, कतए तँ अछि किनार!
देशांस भोथलेलक नाओकेँ अन्हारमे।
हे रौ नटुआ, नाच निर्वस्त्र चारू कात ओकर,
राही तँ आगि-खाएबला बताह अछि।

Maithili to English Tranlation: Gajendra Thakur

Maithili to English Tranlator: Gajendra Thakur
Gajendra Thakur (b. 1971) is the editor of Maithili ejournal “Videha” that can be viewed at http://www.videha.co.in/ . His poem, story, novel, research articles, epic – all in Maithili language are lying scattered and is in print in single volume by the title “KurukShetram- Antarmanak.”He can be reached at his email: ggajendra@airtelmail.in










1.Worn- out half rupee coin
(Ghasal Athanni)

Original Maithili : Late Kashikant Mishra Madhup
Translation : Gajendra Thakur


Noon of Jyeshtha month,
With all his twelve mouths vomiting fire-ball
Up-stooping The Sun
Burning the three worlds aflaming
Violent western wind
The tempest
The san-san-san sound of it
Like fire particle
Anguished blowing the dust.
The birds in nest, composed
Not shaking the wings
Not opening the eyes
Under the tree Animals puffing with tearful eyes
The herdsman went home unwillingly
Pond water turns hot
The water and land habitants tremble
The surrounded husk-bamboo enclosures, doors, windows of houses shut
This fire-rain!
No wayfarer to be seen on road
Will the world create the nature
This fire-rain!
The hi-fis
Having Big bellies
Relaxing supported on big cushions,
Making and filtering Sherbet
Sugar-candy, nut and ice mixed
Beneath the dancing electric-fan
They too peace starved asking –Hari! Hari!
What to tell about the Living
The shadow also asking for shadow
The noon of Jyeshtha-month!
Though at this time
Even then Buchni Left the courtyard of house
Is digging the field of Landowner
What can do the poor-women!
Having been beaten by the lord-of-bad-fate, through all the eight portions of day-night
The widow without family without any standing
Only child of six months
The hope for future
Who is weeping beside the road adjacent to the field
How can she console him?
Even the blood within her is in scarcity
Then how the milk will come out?
After fasting three times in a row (of morning-evening)
Became labourer @ fifty paise
From sunrise to sunset
Will do work
Will not get even the labourer’s breakfast!
Evening time
World now fearless
The moon rose with compassion
By cold light did the universe ecstatic
The cow caring for her child raced by echoing hukara-sound
Tun-tun-tun-tun sound
Tan-tan-tan-tan sound
The sound of bell
The smoke coming out of houses
Even that time starved-thirsty Buchni
Bosom drawn covering her son with saree
Torn faded clothes
The bones coming out
The beauty burnt, marked by poverty
Fearing for being burnt by the fire of hunger
The youth of her fled as soon as it came
Even more than that of riped betel-leaf
Yellowish and thin body
Cracked and split lips
Eyes like mango cut to size
In the ditch is whose ill-fate-thief
*****-anxiety stepping to the tip of saree
Burning her body
Every moment oh! Hope becoming fireball
“give some grain-water” whose life
Speaking through treachery of tear
That becoming helpless
Telling with fear somehow
With folded hands:
That rubbed fifty-paise coin was not accepted (in market)
I went to all the shops
Coming
Please give another half rupee coin
I came am only for this
Has become night
Landowner, do not take time
With hunger and thirst I am dying
Buy with that
Will thresh and crush grain
The child is weeping since morning
Restless and taking out my life.
She again came disturbing my forehead
Changing the real fifty-paise coin somehow
Clearly doing mischief
Hey! Hold her neck and push beside
She is witch
See the eyes
How onlooking
Swallowed such person as her master (husband) Budhna when she came
Chewed suddenly
At the time of Goddess LakShmi
doing lending business
Nobody here?
Took beside this ill-fated women?
Master!
I am not asking debt
Or came for begging
The cultivated labour-charge be given
I am your subject-son
Many times came here
Legs crumbling
For grain my body starving
The third-class-god not assigns even death to me
What time has come
Ha! Did work with all body-strength
That good-line even then the labour-charge not coming
That’s why this famine in world has appeared
I will not be able to go
When I step up the legs it seems dark in-front
Will die here only
To whom I will tell?
Nobody is my own
The wrong-doing is also the splendor of the powerful
God! Oh!
Hey you have no fear?
Many murder I have done and lived
Not even my body-hair got damaged
Long live the Daroga (police-incharge)
Will murder you
Flee women flee
By giving enough wage to labourer
I will put a blemish to my ancestry?
This false-acting do before
someone else
I am black-cobra
will she go simply?
The lord of death is dancing over her head
O, what you are looking at my face
That much courage the third-class people will show?
Cath-cath-cath-cath
Even more heavy than the heaviest
With slap of Makhna she became helpless
Both mother-son fell on earth
Became senseless she
Even then with anger
By doing heavy-echo
Bhutkanbabu stood roaring:
Makhna! Makhna!
She is doing false-acting
Bring my stick
What will you know about women’s character?
My whole life dealt with all these.
Dan-dan-dan-dan
Stick thrashing on the senseless body
Only once unrecognizable weeping
With child left Buchni this Creation!
With sorrow amidst laughter of Moon
That rubbed-worn-out half rupee coin spoke:
“where should I” go
To get shelter
Who will give?
Worn-out is whose fate!




2. SINURHAR
(vermilion on forehead of married women put by host)
Sri Shivshankar Srinivas (b.02.07.1953), village-Lohana, Madhubani| Famous story writer| Published works: Trikona, adahan, gaachh paatha (story-collections). Original Maithili: Shivashankar Srinivas
Translation : Gajendra Thakur



It was occasion of investiture ceremony of Rambhadra Jha’s son. The family came to village from Hyderabad. Kalyani also came with them. Kalyani was only daughter of Rambhadra jha, ten year younger was the son whose investiture ceremony was occasioned.

Kalyani had come; the discussion was there all over the Tola of village. That had a reason. Reason was that the Brahmin-daughter re-married after being widowed. She has come to village! And that for participating in the investiture ceremony? That has reason of amazement. Those members of Tola among whom widow-remarriage was permissible were also amazed! Different types of gossip were in vogue. Much gossip was among the women folk. Along with different arguments and logical deductions the major point of discussion turned towards her groom. Someone was talking-“Groom is excellent. Smiling face.”
Second one asking-“To which caste you belong.”
On that third one telling-“whatever be, when married with a widow itself, then whatever he be.”
“What type of job you do?”
“He is in Bank.”
“Then it is good.”
“Whatever be, Kalyani would remain happy.”

In that way different types of talk and gossip was prevailing in society.
Kalyani’s this type of marriage was not something that was never happened incident but for this lineage it was certainly a new type event. That marriage was solemnized not in village but in Hyderabad. Rambhadra is working there, lives there with family.

Kalyani’s first marriage was solemnized five year’s ago; wedding took place in village only. With much pomp and gaiety. Good groom of a respectable family but the luck was not in favour. Only after four months the groom died in a rail accident. Died on spot. Rambhadra along with his family was at village itself. Upheaval like situation arose as soon as the news came. The whole family dipped into mourning. Understand that the whole village was weeping. Variegated situation was that!

Rambhadra Jha did not think to leave Kalyani at village for any reason. Only three day after the incident all left for Hyderabad, were much critisised by society.

After some time mother of Kalyani started creating an environment in which Kalyani should understand that her marriage itself had never took place. What happened happened. That was like a dream. But Kalyani was finding it uneasy to remain straight. She remained trembling for quite some time. As she was living in Hyderabad town, the place has its own activity. A separate environment was there that started constantly giving freshness to Kalyani. Slowly-slowly she started getting life.

Those days she was studying in B.A., was attending college. One day her classmate Preeta introduced her to her (Preeta’s) elder brother. First Kalyani winced, but Preeta impressed her softly and slowly, gave her energy to come out, breaking the shackles of nurture. Preeta’s family was from Uttar Pradesh. Earlier they were all Brahmins but now for them there was no caste bondage. For this marriage of choice the whole family consented. The matter got forward. Kalyani’s mother took the proposal in an ecstatic way. She always wanted to re-marry Kalyani. She came forward. The environment of enthusiasm became aromatic. Kalyani got married.

The news travelled to Village without delay. Many people of this village reside there. Some of the people came to village during those days. They all told this. In a flash the news spread over the village. For some time great discussion ensued and that not only in the village but also in the whole area, but also after some time everything started to be calmed. Some people spoke this thing-that thing but most took it in right spirit. The same discussion has re-surfaced when Rambhadra Jha’s family had come here for ceremony of investiture with sacred thread.

In Hyderabad, when the date for investiture ceremony was fixed then itself the matter of inviting or not Kalyani came in front. It was amazing that the mother herself did not want that Kalyani should go to village. Internally she feared village people. In the mind was the fear that the people may outcast them at the time of investiture ceremony. In the ceremonial rituals the participation of people is necessary and then for eight-Brahmin feast also people are required. She put her fear before Kalyani’s father, husband. Rambhadra was not in agreement with wife’s viewpoint. He gave logic- “Even when Kalyani would not accompany us even then people would outcaste us if they had decided. The more we would fear the more they would threaten.” But the heart of wife was not solaced. Rambhadra Jha kept silence then.

Time came nearby. One day, in the morning, Rambhadra was reading newspaper. Inquisitive wife came and sat near him. Rambhadra knew what she would tell and she told same thing- “When you go to office today then return by Kalyani’s house. Tell her about the investiture ceremony of Bauwa and tell also to come with us. How could we leave her? She is our child. Bauwa is sibling of her’s and that also the only one. She would accompany, whatever be…” While speaking tear came to her eyes, could not speak any further. When in the evening he returned wife asked- “what she answered? You went there or not?” Rambhadra Jha spoke in pleasant mood- “You know after hearing the news she started dancing with excitement, started making programmes of different types.”
“And he!” wife asked with certain fear.
“Who?” Rambhadra Jha questioned.
“Son-in-Law!”
“Not ask that, on his face I felt a distinct type of contentment. He is gem, really.” Rambhadra Jha while replying looked at his wife. He saw that expression of her face has changed suddenly. He felt that wife had not become happy on the news of son-in-law also going. She wants to take along only her daughter, but he did not say anything.

That only when Rambhadra Jha and all came to village, people saw that Kalyani and her husband both had come. They saw it, then why they would remain silent? Gossiping started. Different types of talking were in air but all was within. Rambhadra did not get any non-cooperation from anybody. Not say about the feast and feast servers. All work started with the help of the people. Despite getting social harmony Kalyani’s mother felt that whenever a man or women comes his or her eyes look for Kalyani. Look towards Kalyani’s husband. Feeling this she feared people from her inner, felted restlessness. Had it been in her capacity, had she known some magic-spell she would have turned both of them invisible so that they would see all without being seen by anybody. But that was not possible for her. Powerless, she would start imbalancing. She would start thinking much type of things and would fear.

For Kalyani all this was nothing. She was completely normal. Her husband was enjoying by being carefree. People were coming, mostly the daughters and ladies and joke and comic topics took rounds. Kalyani would become hilarious. The high-pitch laughing would make mother startled. Like hunter being hit at her head. Thought in mind- “Somebody would feel uneasy at her laugh and would start putting hurdles. She should remain calm and disciplined but it would not be. When she would go to Hyderabad should live in whatever way she likes.” After sometime her mind started becoming abashed. And one day could not control and told, “ You would not remain disciplined. You are swallowing poison and sleeping in east-wind. This is village that you understand. People may object to all this any time, think of that.” Hearing mother’s talk Kalyani became surprised. Seeing and thinking of her new face she became exhausted. The enthusiasm like rice-soup started cooling down. Suddenly she became lazy, and likewise time started being passed. The work relating to investiture ceremony of sacred thread began.

The preparation ensued. The sacred Marba (rostrum) was erected. The ceremony of bringing clay for auspicious rite was performed. The rostrum was repaired, smeared and polished with dung. Then rostrum was written and painted.

The day was the day before the sacred investiture ceremony. On that day was to be held the sacred bathing ceremony. The drum was being drummed and pipe was being blown. The preparation for worship and invocation of family deity was underway. The ladies old and young were singing good-omen songs. The fragrance of festivity had spread all over. The whole environment became musical.

Here now the rite of Sinurhar (putting vermilon on married women by host) was to be performed. The preparation was underway for putting oil and vermilion by host to the women who took part in the ceremony. The ladies would be given gift in their saree and rice cooked in milk along with fried chapatti would be given in their hands. The married participates in this and feel the happiness about the well being of their husband; therefore the nearest and dearest relatives are called for this ceremony. So the boy’s mother invited the nearest clans-women. Any newly married, daughter-bride would not generally come. But why anyone should feel neglected? Minimum five married are essential; if all were called then also it would be seventeen. She invited one and all. She invited all but among them Kalyani’s name did not figure. She was not invited.

The function of Sinurhar was to be held before the room of home-goddess, the boy’s mother was busy in arrangements. Kalyani was in eastern house’s southern partition. Kalyani was sitting in front of window. From there she was hearing and looking everything. The newly-weds, daughters, women were making line for Sinurhar. The joyous mood was all-over and was resulting in springs of laughter now and then, was enough for changing mood of anyone to a pleasant one.

Onlooking and overhearing Kalyani now and then was trembling. She could not imagine that in Sinurhar function of his own brother’s investiture ceremony she would not be present. She stood and stands up in front of mirror. Other day she would feel shy by looking at her own image. That look today seemed unrecognizable. She thought- “Why came here? For what enjoyment?”

Her concentration moved towards her mother. At once she remembered her grand mother. By her name she remembers more of silly rituals then of her affection. Everybody, her mother and aunt including, were in dominance of her disciplinary rituals! What would get touched? On what matter she would get angry! Her grand mother thought that the unmarried and married having husbands both were contaminated. She ate food cooked by men or widow only. Among men the widowed were also not debarred.

She remembers that when she was child, during her arrival and departure to village from Hyderabad, when she would visit other’s home on invitation, people would indulge after indicating towards her in slow-voice talking. Although she was a little child even then she understood that they had been talking about her also. Later on she knew that they were talking about her grand mother. Among the whisper maker were all the married women whose husband were alive. Those days she was not that much mature but later on she knew that in her society people regard widow as bad-omen. So most of the time, among themselves, those married women whose husband were alive criticized widows. They regarded the look of widows as bad-omen. No men look towards other man in this way nor do the women look towards widower in this manner. Today Kalyani remembers the hawk of a story of a fowler, which hunted and brought fowls for the fowler. Even later on when the fowler remained asleep then also would hunt even without getting any provocation

The hawk hunted fowls. She thought that men were fowlers and the ladies were hawks. The women hunting the women. She felt uneasiness. She felt that somebody has enflamed her body.

See, mother did not invite her? Who cares? From this what is going to happen? But in the investiture ceremony of her brother itself she was not invited? Not for any other reason, but simply for the sake of enjoyment, for feeling the satisfaction to have participated in the function along with the brides and daughters, this continued haunting her. Not only haunted but now she felt awkward. Then her eyes moved towards her husband. He too was seeing the Sinurhar episode. She felt what her husband had been feeling! At then she saw her mother was coming towards her. Her heart started beating fast. The whole body became lighter. She felt suddenly that she had transformed into a child. But mother did not come to her. She stopped at eaves; Kalyani stood and came near door, saw that her father was standing there. Kalyani stood behind an obstruction.

“What are you asking”? She heard her mother asking.
His father said- “I am not seeing Kalyani in the Sinurhar function.”
“Oh God, You will not get intelligence ever.” The wife told in high-pitch and angrily.
“That’s how?” The husband also asked in high-pitched voice.
“She is my daughter. Her fate was bad that we repaired. We did not think over the Dharma and Adharma.” She told angrily to her husband- “This is a pooja of home-Goddess for those married whose husband has not died.”
“But Kalyani is not in that category.”

The Wife’s voice became harsh- “Not ask any false queries. Because of her I will not allow any wrong to happen to my son.” The wife left while replying. Rambhadra Jha’s senses came to a halt.

The whole courtyard came to standstill. Many did not like Kalyani’s mother’s attitude but mere whispering and no protest came forward. But Kalyani became restless. Her mother thinks of her as bad-omen. Her head felt like cracking. What should she do? She should not stay here any more. She resolved internally.

But that resolve did not remain as such for long. Before she would take any decision, her eye looked to her brother who was sitting on verandah. She onlooked him from there itself. She remembered the events right from his childhood to till date. The sibling bondage trembled her heart. She thought like weeping in the laps of her father. The tears came out of her eyes. But how should she weep? How should she weep on the auspicious day of his brother? She wiped her eyes with saree.

She looked towards her mother. Mother was performing the rites of Sinurhar. Mother once turned towards one side for putting something and then Kalyani saw that Mother’s face also there was no peace. Kalyani saw that she moved downwards and took the vermilion. After putting oil in head of the married she would now put vermilion. Kalyani turned and came in front of mirror; saw the vermilion line at her head and this enthused energy into her.

She thought- “She won’t go. She won’t go leaving the function of her brother?” Looking towards the innocent face of her brother her heart got filled with affection. She thought- her mother thinks that she is bad-omen. But her father does not think so. And brother? What would he think at this tender age? He is a boy. He is her sibling. She won’t go. But how she would remain as such? Thinking of this she onlooked the Sinurhar function for some time. Her mother was putting vermilion on the heads of the lucky married ones. She thought that the function of Sinurhar would be performed by some married whose husband is alive! She got strengthened at this thought. From room she came to courtyard and moved towards Sinurhar. She took in hand the plate containing rice cooked in milk and fried chapatti. She moved forward and gave rice cooked in milk and fried chapatti in the hands of her sister-in-law who was lined up in front. The sister-in-law accepted it joyfully. Then Kalyani’s cousin sister Lalita took holds of her and put her in line. She took the vermilion plate from Kalyani’s mother and put vermilion on Kalyani’s head. The mother felt awkward. The people also. But the glaring face of Kalyani standing in the row filled her with emotion. See everybody liked it. Kalyani’s mother surprisingly looked backwards and saw her husband smiling with closed lip looking at his daughter. Kalyani onlooked and saw that her husband ‘s face is full with affection. He was seeing at her joyfully.

3. Looking into the mirror of time
Gopalji Jha ‘Gopesh’
Late Gopalji Jha ‘Gopesh’ (1931-2008) is a Maithili poet of eminence. His published works include “Album,” “Gumm Bhel Tharh Chhi,” “Son Daik Chitthi,” and “Aab Kahu man Kehan Lagaiye.”

Original Maithili : Gopalji Jha Gopesh
Translation : Gajendra Thakur



Looking into the mirror of time
I see my face
And feel
That nothing new happens
Takes birth
Daily in the early morning
Some desire of this kind
Within the mind upward goes emotion’s wave
That something new will happen today
But Sun-God impresses
On the head of day some news of this kind
In which I to myself
Am not able to adjust
flying distances with dusty wings
fat becomes the pet pigeon likewise
my waves of emotions
become thick, find support from my experiences
prove that
nothing new happens
whatever come in front of us
that happens to be on the stone-piece of time
the same worn-out old thing old ideology
that boasts of being new
and squeezes the pain out of tired, inert mind


The Fundamentals
-by Taranand Viyogi (1966- ) The maithili short story “moolbhoot” by Sh. Taranand Viyogi translated into English by Gajendra Thakur.
Once upon a time it happened.
The almighty could not see the mismanagement in the country.
He posed like a Tantric and came before the Leader of the Nation. He could have come in his real form but as this Leader of the Nation believed more in the Tantrics so he thought it more appropriate to pose like a Tantric and came to the Leader of the Nation.
After worship and sacred-reading (by the Leader of the Nation) he (Tantric) asked for corruption in donation from the Leader of the Nation.
A unique light of corruption came out of the body of the Leader of the Nation and went away.
After the departure of Corruption the chastity and character of the Leader of the Nation also departed. Then Dharma went away. After that good-habits also came out and went on its way.
The efficiency of the clerk vanished. The healing-touch of the Doctors fell flat. The Engineers became perplexed. The political leaders and ministers started dying.
The religious places became empty. There was none who will pour water on to the Gods.
The prospective and the brilliant left study and started street-rowdism and started inhaling cannabis.
The whole country became lonely crematorium.
Then again the Almighty could not see the misfortune of the nation.
Again a Tantric came to the Leader of the Nation.
And again asked for coruuption for the welfare of all from the Leader of the Nation.
Ramlochan Thakur (1949- ) Senior Poet, theatre artist ,editor and critic of Maithili language. "Itihashanta" and "Deshak nam chhal son chrai", "Apoorva"(collection of poems).
Gajendra Thakur (b. 1971) is the editor of Maithili ejournal “Videha” that can be viewed at http://www.videha.co.in/ . His poem, story, novel, research articles, epic – all in Maithili language are lying scattered and is in print in single volume by the title “KurukShetram.” He can be reached at his email: ggajendra@airtelmail.in
Original Maithili Poem by Sh. Ramlochan Thakur translated into English by GAJENDRA THAKUR
Addressed to the system/ warning-
Without any indication
Or
Any wait for time
The sleeping volcano
Could thunder anytime
The mountaineer
Anytime could lag behind
Original poem in Maithili by Ramlochan Thakur

Translated into English by Gajendra Thakur


Letter to the Sister



Sister!

I had received your letter

But there was delay in reply.

Why should I lie that

I was busy.



What to write and why to write,

That I could not decide,

Therefore this delay!



Sister !

I know that this year too

You might have made Sama-Chakeba.

And might have waited for me.

After Vrindaban set on fire.

Then not finding me

might have become sad.

Incessant tear might have flown from your eyes.



But Sister !

You believe it or not

It is true that

Any forest fire could not be controlled by

A water-filled jug and

That you have written,

True, I am changed, a lot.

I know that Vrindaban is

Not the same Vrindaban now,

Now not one,

But in numbers,

The slanderers have taken birth

And it is this Vrindaban,

The permanent abode of those.



The old hollowed trees have

Given shelter to the terrible poisonous snakes.



Today

there,

Even air is poisonous,

To inhale that air is also not advisable.



Therefore

In my opinion

It would be better if it is destroyed in fire,

trying to subdue the fire is not desirable,

Is misuse of strength,

That strength is to be preserved

For future.

When we would plant

Certainly would plant

A new Vrindaban

Would water it not from a reservoir

But with our sweat/ and would blossom

Flowers of many colours/ in consonance of our desire

Would give a new colour to our dreams.



Sister!

I believe/ and you’d believe too

That today/ in our own village we are all unknown-unknown

Having no identity,

Certainly the pain of it is unbearable,

But/ for that

It would not be appropriate to cry

But to recognize our own power,

And to overhear outside voice too and

To resolve

Then tomorrow – tomorrow

We would have an identity,

We the Vrindaban,

Our Vrindaban.
Sh. Krishnamohan Jha (1968- ), "Ekta Herayal Duniya", collection of poems.
Gajendra Thakur (b. 1971) is the editor of Maithili ejournal “Videha” that can be viewed at http://www.videha.co.in/ . His poem, story, novel, research articles, epic – all in Maithili language are lying scattered and is in print in single volume by the title “KurukShetram.” He can be reached at his email: ggajendra@airtelmail.in
Original Maithili Poem by Sh. Krishnamohan Jha translated into English by GAJENDRA THAKUR
ONE DAY
If not today then tomorrow
If not tomorrow then on a day after tomorrow
If not on a day after tomorrow then on two days after tomorrow
Not on two days after tomorrow not even after a month…
Then after a couple of years

One day
You would return to this threshold
And time and again would tell to yourself-
Thanks! Thanks!!


Renaissance
http://www.videha.co.in/

Maithili short-story written by Sh. Deo Shankar Navin translated into English by Gajendra Thakur.
Renaissance
From a distance came a crow and sat on top of a two pronged tree of the state road. Disciplined, a peace of bread in his beak…may be that he is tired while constantly flying or may be that he might have procured the bread after meticulous attack…was sitting and resting. In front was the parliament house, bright like some young women’s bare and muscled body bathed in milk. The crow was looking towards it with angry eyes. And at that time a healthy dog passed thereby. Looking bread in the mouth of the crow he spoke – O brother ! How many days have passed, I have not heard you sing. I often remember . Please have a song ! The crow looked seriously towards him, keeping bread in his claws he spoke thunderously- boy ! while lying in that cave how you will hear the song of outside world ? What you’ll do after hearing ? Now even while speaking, my bread won’t fall in front of you.



RamlochanThakur’s Poem translated into English.
You and I

Creation
Anyone whatever be
Itihashanta, Gita or Gitanjali
Is not without purpose
The creator is not impartial
The only difference
That what I hold
You do not

Purposeful false talk
Yudhishthir does
Cheats teacher
You know too
But do not hold
Calling him out as Dharmaraja, the uprighteous
But not I.

https://store.pothi.com/book/गजेन्द्र-ठाकुर-नित-नवल-सुभाष-चन्द्र-यादव/

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